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शिवलिंग का पूजन व महत्व ( अथर्वेद , विज्ञान , शिवपुराण , लिंगपुराण ,शैव सम्प्रदाय ) से जुड़ी कुछ खास बाते -


शिवलिंग का पूजन व महत्व ( अथर्वेद , विज्ञान , शिवपुराण , लिंगपुराण ,शैव सम्प्रदाय ) से जुड़ी कुछ खास बाते -

शिवलिंग (अर्थार्त प्रतीक, निशान या चिह्न) इसे लिंगा, लिंगम् या शिवा लिंगम् भी कहते हैं। यह हिंदू भगवान शिव का प्रतिमाविहीन चिह्न है। यह प्राकृतिक रूप से स्वयम्भू व अधिकतर शिव मंदिरों में स्थापित होता है। शिवलिंग को सामान्यतः गोलाकार मूर्तितल पर खड़ा दिखाया जाता है जिसे योनी, पीठम् या पीठ कहते हैं। लिंगायत मत के अनुयायी 'इष्टलिंग' नामक शिवलिंग पहनते हैं।


🔺 विभिन्न हिंदू परंपराओं में शिवलिंग की परिभाषा 

📍 शिवलिंग की यह व्याख्या शैव सम्प्रदाय की प्रमुख परम्परा  शैवसिद्धांत के अनुसार है। शिवलिंग का ऊपरला हिस्सा परशिव और निचला हिस्सा यानी पीठम् पराशक्ति को दर्शाता है। पराशक्ति एवं परशिव भगवान शिव की दो परिपूर्णताएँ हैं।

शैव संप्रदाय; हिंदू धर्म की 4 प्रमुख संप्रदायों में से एक है। शैव सिद्धांत जो शैव संप्रदाय की प्रमुख परम्पराओं में से एक है उसमें भगवान शिव की 3 परिपूर्णताएँ: परशिव, पराशक्ति और परमेश्वर बताई गई हैं। शिवलिंग का ऊपरी अंडाकार भाग परशिव का प्रतिनिधित्व करता है व निचला हिस्सा यानी पीठम् पराशक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। परशिव परिपूर्णता में भगवान शिव मानव समझ और समस्त विशेषताओं से परे एक परम् वास्तविकता है। इस परिपूर्णता में भगवान शिवनिराकार, शाश्वत और असीम है। पराशक्ति परिपूर्णता में भगवान शिव  सर्वव्यापी, शुद्धचेतना, शक्ति और मौलिक पदार्थ के रूप में मौजूद है। पराशक्ति परिपूर्णता में भगवान शिव का आकार है परन्तु परशिव परिपूर्णता में वे निराकार हैं।

सामान्यतः  पत्थर, धातु व चिकनी मिट्टी से बना स्तम्भाकार या अंडाकार (अंडे के आकार का) शिवलिंग भगवान शिव की निराकार सर्वव्यापी वास्तविकता को दर्शाता है। भगवान शिव का प्रतीक शिवलिंग - सर्वशक्तिमान निराकार प्रभु की याद दिलाता है। शैव हिन्दू सम्प्रदाय के मंदिरों में शिवलिंग कोमल व बेलनाकार होता है। यह सामान्यतः मंदिर के केंद्र यानी गर्भगृह में शक्ति का प्रतिनिधित्व करते गोलाकार पीठम् पर खड़ा दिखाया जाता है। भारतीय समाज में पारंपरिक रूप से शिवलिंग को भगवान शिव की ऊर्जा का रूप भी माना जाता है।

📍  उत्पत्ति ( विज्ञान के अनुसार )
सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई के दौरान कालीबंगा और अन्य खुदाई के स्थलों पर मिले पकी मिट्टी के शिवलिंगों से प्रारंभिक शिवलिंग पूजन के सबूत मिले हैं। सबूत यह दर्शाते हैं कि शिवलिंग की पूजा 3500 ईसा पूर्व से 2300 ईसा पूर्व भी होती थी।

 📍  मानवविज्ञानी क्रिस्टोफर जॉन फुलर ने लिखा है कि हालांकि अधिकांश मुर्तियाँ मानवरूपी मिली हैं परन्तु शिवलिंग एक महत्वपूर्ण अपवाद है। कुछ का मानना है कि शिवलिंग-पूजा स्वदेशी भारतीय धर्म की एक विशेषता थी।

📍 अथर्ववेद के स्तोत्र में एक स्तम्भ की प्रशंसा की गई है, संभवतः इसी से शिवलिंग की पूजा शुरू हुई हो। अथर्ववेद के स्तोत्र में अनादि और अनंत स्तंभ का विवरण दिया गया है और यह कहा गया है कि वह साक्षात् ब्रह्म है (यहाँ भगवान ब्रह्मा की बात नहीं हो रही है)। स्तम्भ की जगह शिवलिंग ने ले ली है। #लिङ्गपुराण में अथर्ववेद के इस स्तोत्र का कहानियों द्वारा विस्तार किया गया है जिसके द्वारा स्तम्भ एवं भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया गया है। 

📍 शिवपुराण में शिवलिंग की उत्पत्ति का वर्णन अग्नि स्तंभ के रूप में किया गया है , जो अनादि व अनंत है और जो समस्त कारणों का कारण है। लिंगोद्भव कथा में परमेश्वर शिव ने स्वयं को अनादि व अनंत अग्नि स्तंभ के रूप में ला कर भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु को अपना ऊपरला व निचला भाग ढूंढने के लिए कहा और उनकी श्रेष्ठता तब साबित हुई जब वे दोनों अग्नि स्तंभ का ऊपरला व निचला भाग ढूंढ नहीं सके। शिवलिंग के ब्रह्मांडीय स्तंभ की व्याख्या का समर्थन लिङ्ग पुराण भी करता है। लिङ्गपुराण के अनुसार  शिवलिंग निराकार ब्रह्मांड वाहक है - अंडाकार पत्थर ब्रह्मांड का प्रतीक है और पीठम् ब्रह्मांड को पोषण व सहारा देने वाली सर्वोच्च शक्ति है। इसी तरह की व्याख्या स्कन्दपुराण में भी है, इसमें यह कहा गया है "अनंत आकाश (वह महान शून्य जिसमें समस्त ब्रह्मांड वसा है) शिवलिंग है और पृथ्वी उसका आधार है। समय के अंत में, समस्त ब्रह्मांड और समस्त देवता व इश्वर शिवलिंग में विलीन हो जाएँगें।" जग्गी वासुदेव के अनुसार शिवलिंग को रचना के बाद बना पहला रूप और ब्रह्माण्ड के अंत से पहले का रूप माना जाता है। #महाभारत में #द्वापरयुग के अंत में भगवान शिव ने अपने भक्तों से कहा कि आने वाले कलियुग में वह किसी विशेष रूप में प्रकट नहीं होगें परन्तु इसके बजाय वह निराकार और सर्वव्यापी रहेंगे।

 अथर्ववेद के इन निम्न श्लोकों में स्तंभ का उल्लेख हुआ है:

🚩 यस्य त्रयसि्ंत्रशद् देवा अग्डे. सर्वे समाहिताः । स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः सि्वदेव सः ।। अथर्ववेद कांड 10 सूक्त 7 श्लोक 13
अर्थार्त: कौन मुझे स्तम्भ के बारे में बता सकता है। जिसके देह में सभी तैंतीस इश्वर विराजमान हैं -

🚩 स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम् । स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ।। अथर्ववेद कांड 10 सूक्त 7 श्लोक 35
अर्थार्त: स्तंभ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है। स्तंभ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तंभ संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है।

🚩 शिवलिंग का शास्त्रों में उल्लेख संपादित करें
रुद्रो लिङ्गमुमा पीठं तस्मै तस्यै नमो नमः । सर्वदेवात्मकं रुद्रं नमस्कुर्यात्पृथक्पृथक् ॥ रूद्रहृदयोपनिषद श्लोक 23
अर्थ: रुद्र अर्थ व उमा शब्द है। दोनों को साष्टांग प्रणाम है। रुद्र शिवलिंग व उमा पीठम् है। दोनों को साष्टांग प्रणाम है।

🚩 पिण्डब्रह्माण्डयोरैक्यं लिङ्गसूत्रात्मनोरपि । स्वापाव्याकृतयोरैक्यं स्वप्रकाशचिदात्मनोः ॥योगकुण्डलिनी उपनिषद् 1.81
अर्थ: संपूर्ण संसार और सूक्ष्म जगत एक है और उसी प्रकार शिवलिंग और सूत्रात्मन्, तत्त्व और रूप, चिदात्मा और आत्म-दीप्तिमान प्रकाश भी एक है।

🚩 निधनपतयेनमः । निधनपतान्तिकाय नमः । ऊर्ध्वाय नमः । ऊर्ध्वलिङ्गाय नमः । हिरण्याय नमः । हिरण्यलिङ्गाय नमः । सुवर्णाय नमः ।सुवर्णलिङ्गाय नमः । दिव्याय नमः । दिव्यलिङ्गाय नमः । भवाय नमः। भवलिङ्गाय नमः । शर्वाय नमः । शर्वलिङ्गाय नमः । शिवाय नमः । शिवलिङ्गाय नमः । ज्वलाय नमः । ज्वललिङ्गाय नमः । आत्माय नमः । आत्मलिङ्गाय नमः । परमाय नमः । परमलिङ्गाय नमः ॥ महानारायण उपनिषद् 16.1

 अर्थ: नमस्कारों के साथ समाप्त होने वाले इन बाईस नामों से शिवलिंग सभी के लिए पवित्र बनता है - शिवलिंग सोमा और सूर्य का प्रतिनिधि है और हाथ में पकड़ें पवित्र सूत्रों को दोहराने से सभी शुद्ध होते हैं। 

🚩 तांश्चतुर्धा संपूज्य तथा ब्रह्माणमेव विष्णुमेव रुद्रमेव विभक्तांस्त्रीनेवाविभक्तांस्त्रीनेव लिङ्गरूपनेव च संपूज्योपहारैश्चतुर्धाथ लिङ्गात्संहृत्य ॥ नृसिंह तापनीय उपनिषद् अध्याय 3
अर्थ: इस प्रकार आनंद अमृत के साथ चार ब्रह्मा (देवता, गुरु, मंत्र और आत्मा), विष्णु, रुद्र पहले अलग-अलग और फिर प्रसाद के साथ शिवलिंग के रूप में एकजुट पूजे जाते हैं।[42][43][44]

🚩 तत्र द्वादशादित्या एकादश रुद्रा अष्टौ वसवः सप्त मुनयो ब्रह्मा नारदश्च पञ्च विनायका वीरेश्वरो रुद्रेश्वरोऽम्बिकेश्वरो गणेश्वरो नीलकण्ठेश्वरो विश्वेश्वरो गोपालेश्वरो भद्रेश्वर इत्यष्टावन्यानि लिङ्गानि चतुर्विंशतिर्भवन्ति ॥ गोपाला तापानी उपनिषद् श्लोक 41 
अर्थ: बारह आदित्य , ग्यारह रुद्र, आठ वसु, सात ऋषि, ब्रह्मा, नारद, पांच विनायक, वीरेश्वर, रुद्रेश्वर, अंबिकेश्वर, गणेश्वर, नीलकण्ठेश्वर, विश्वेश्वर, गोपालेश्वर, भद्रेश्वर और 24 अन्य शिवलिंगों का यहाँ पर बास है। [45][46][47]

🚩 तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवन्दिता । योनिमध्ये स्थितं लिङ्गं पश्चिमाभिमुखं तथा ॥ ध्यानबिन्दु उपनिषद् श्लोक 45
अर्थ: योनी के बीच पश्चिम की ओर मुख करता शिवलिंग है और शिवलिंग के सर के मध्य से निकला विभाजन रत्न है। यह जानने वाला वेदों का ज्ञाता है। [48][49][50]

🚩 मात्रालिङ्गपदं त्यक्त्वा शब्दव्यञ्जनवर्जितम् । अस्वरेण मकारेण पदं सूक्ष्मं च गच्छति ॥अमृतबिन्दु उपनिषद् श्लोक 4
अर्थ: मंत्र, लिंग और पाद को छोड़कर, वह स्वाद (उच्चारण) के बिना पाद 'म' के माध्यम से स्वर या व्यंजनों के बिना सूक्ष्म पाद (सीट या शब्द) प्राप्त करता है।.[51][52][53]

🚩 तिरुमंत्रम् (तमिल हिंदू शास्त्र) में शिवलिंग का उल्लेख कई बार हुआ है जैसे कि: [54]
जीव शिवलिंग है; यह प्रकाश देने वाली रोशनी है न कि इंद्रियों को भ्रमित करने वाली। तिरुमंत्रम् 1823
उसका रूप अरचित शिवलिंग और दिव्य सदाशिव है। तिरुमंत्रम् 1750
लिङ्गाष्टकं स्तोत्रम्,[55] ज्योतिर्लिंग स्तोत्रम्[56][57][58] और मार्ग सहाय लिङ्ग स्थुथि[59][60] में शिवलिंग की प्रशंसा की गई है और इनमें भगवान शिव से शिवलिंग के रूप में आशीर्वाद माँगा गया है।  
शिवलिंग की पूजा से उत्पन्ना हुआ पुण्य त्याग, तपस्या, चढ़ावे व तीर्थ यात्रा से उत्पन्ना हुए पुण्य से हजार गुणा अधिक है। कारणा आगम 9. 66[61]

📍  शैव परम्परा 

बहुत से शिव-मन्दिरों में शिव को योगमुद्रा में दर्शाया जाता है।
भगवान शिव तथा उनके अवतारों को मानने वालों को शैव कहते हैं। [1] शैव में शाक्त, नाथ, दसनामी, नाग आदि उप संप्रदाय हैं। महाभारत में माहेश्वरों (शैव) के चार सम्प्रदाय बतलाए गए हैं: (i) शैव (ii) पाशुपत (iii) कालदमन (iv) कापालिक। शैवमत का मूलरूप ॠग्वेद में रुद्र की आराधना में हैं।[2] 12 रुद्रों में प्रमुख रुद्र ही आगे चलकर शिव, शंकर, भोलेनाथ और महादेव कहलाए।

शैव धर्म से जुड़ी महत्‍वपूर्ण जानकारी और तथ्‍य
(1) भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव और शिव से संबंधित धर्म को शैवधर्म कहा जाता है।

(2) शिवलिंग उपासना का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष्य हड़प्पा संस्कृति के अवशेषों से मिलता है।

(3) ऋग्वेद में शिव के लिए रुद्र नामक देवता का उल्लेख है।

(4) अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति और भूपति कहा जाता है।

(5) लिंगपूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्यपुराण में मिलता है।

(6) महाभारत के अनुशासन पर्व से भी लिंग पूजा का वर्णन मिलता है।

(7) वामन पुराण में शैव संप्रदाय की संख्या चार बताई गई है:

(i) पाशुपत
(ii) काल्पलिक
(iii) कालमुख
(iv) लिंगायत
(7) पाशुपत संप्रदाय शैवों का सबसे प्राचीन संप्रदाय है। इसके संस्थापक लवकुलीश थे जिन्‍हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता है।

(8) पाशुपत संप्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया, इस मत का सैद्धांतिक ग्रंथ पाशुपत सूत्र है।

(9) कापालिक संप्रदाय के ईष्ट देव भैरव थे, इस सम्प्रदाय का प्रमुख केंद्र 'शैल' नामक स्थान था।

(10) कालामुख संप्रदाय के अनुयायिओं को शिव पुराण में महाव्रतधर कहा जाता है। इस संप्रदाय के लोग नर-कपाल में ही भोजन, जल और सुरापान करते थे और शरीर पर चिता की भस्म मलते थे।

(11) लिंगायत समुदाय दक्षिण में काफी प्रचलित था। इन्हें जंगम भी कहा जाता है, इस संप्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते थे।

(12) बसव पुराण में लिंगायत समुदाय के प्रवर्तक वल्लभ प्रभु और उनके शिष्य बासव को बताया गया है, इस संप्रदाय को वीरशिव संप्रदाय भी कहा जाता था।

(13) दसवीं शताब्दी में मत्स्येंद्रनाथ ने नाथ संप्रदाय की स्थापना की, इस संप्रदाय का व्यापक प्रचार प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ।

(14) दक्षिण भारत में शैवधर्म चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव और चोलों के समय लोकप्रिय रहा।

(15) नायनारों संतों की संख्या 63 बताई गई है जिनमें उप्पार, तिरूज्ञान, संबंदर और सुंदर मूर्ति के नाम उल्लेखनीय है।

(16) पल्लवकाल में शैव धर्म का प्रचार प्रसार नायनारों ने किया।

(17) ऐलेरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने करवाया।

(18) चोल शालक राजराज प्रथम ने तंजौर में राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया था।

(19) कुषाण शासकों की मुद्राओं पर शिव और नन्दी का एक साथ अंकन प्राप्त होता है।

(20) शिव पुराण में शिव के दशावतारों के अलावा अन्य का वर्णन मिलता है। ये दसों अवतार तंत्रशास्त्र से संबंधित हैं:

(i) महाकाल (ii) तारा (iii) भुवनेश (iv) षोडश (v) भैरव (vi) छिन्नमस्तक गिरिजा (vii) धूम्रवान (viii) बगलामुखी (ix) मातंग (x) कमल
(21) शिव के अन्य ग्यारह अवतार हैं:

(i) कपाली (ii) पिंगल (iii) भीम (iv) विरुपाक्ष (v) विलोहित (vi) शास्ता (vii) अजपाद (viii) आपिर्बुध्य (ix) शम्भ (x) चण्ड (xi) भव
(22) शैव ग्रंथ इस प्रकार हैं:

(i) श्‍वेताश्वतरा उपनिषद (ii) शिव पुराण (iii) आगम ग्रंथ (iv) तिरुमुराई
(23) शैव तीर्थ इस प्रकार हैं:

(i) बनारस (ii) केदारनाथ (iii) सोमनाथ (iv) रामेश्वरम (v) चिदम्बरम (vi) अमरनाथ (vii) कैलाश मानसरोवर
(24) शैव सम्‍प्रदाय के संस्‍कार इस प्रकार हैं:

(i) शैव संप्रदाय के लोग एकेश्वरवादी होते हैं।
(ii) इसके संन्यासी जटा रखते हैं।
(iii) इसमें सिर तो मुंडाते हैं, लेकिन चोटी नहीं रखते।
(iv) इनके अनुष्ठान रात्रि में होते हैं।
(v) इनके अपने तांत्रिक मंत्र होते हैं।
(vi) यह निर्वस्त्र भी रहते हैं, भगवा वस्त्र भी पहनते हैं और हाथ में कमंडल, चिमटा रखकर धूनी भी रमाते हैं।
(vii) शैव चंद्र पर आधारित व्रत उपवास करते हैं।
(viii) शैव संप्रदाय में समाधि देने की परंपरा है।
(ix) शैव मंदिर को शिवालय कहते हैं जहां सिर्फ शिवलिंग होता है।
(x) यह भभूति तीलक आड़ा लगाते हैं।
(25) शैव साधुओं को नाथ, अघोरी, अवधूत, बाबा, औघड़, योगी, सिद्ध कहा जाता है।

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